लेखनी कविता - सच्चा सुख - बालस्वरूप राही
सच्चा सुख / बालस्वरूप राही
धूप चिलचिलाती निकले तो
मन होता बादल आएँ,
खूब झमाझम पानी बरसे,
भीगे, झूम-झुम गाएँ,
छाता लगा गली में घूमे
या टहले घर की छत पर,
गरमागरम पकौड़े खाएँ,
देखे टीवी पर पिक्चर।
मगर झड़ी जब लग जाती है
हृदय चाहता धूप खिले,
गलियाँ सुख बाहर निकले,
कुछ तो मन को चैन मिले,
वर्षा कभी, कभी लू-गर्मी,
यह तो चलता रहता है,
सच्चा सुख बस वह पाता जो
हँसकर यह सब सहता है।
जिनको मनभावन मौसम की
रहती सदा प्रतीक्षा है,
उनके लिए समूचा जीवन
केवल कड़ी प्ररीक्षा है।